‘Wolf’ FILM REVIEW: पुरुषों को समझने के लिए क्या पुरुष होना पड़ता है?

कोविड, कोरोना, लॉकडाउन जैसे कई शब्द पिछले एक-डेढ़ साल से हमारे शब्दकोष में प्रवेश कर चुके हैं. फिल्म वालों के लिए भी ये एक अच्छा मौका बनकर उभरा है जब कई नई कहानियां, नए कलाकार, कई तकनीकों को मौका देना संभव हुआ है. इसी कड़ी में ज़ी5 पर हाल ही में रिलीज़ फिल्म “वुल्फ” एक बढ़िया फिल्म है. फिल्म में सिर्फ़ 9 कलाकार हैं, जिसमें से प्रमुख 3 कलाकारों पर ज़्यादातर फिल्म आधारित है. फिल्म की 95 प्रतिशत शूटिंग एक बंगले के अंदर हुई है और लॉकडाउन का आधार बनाकर फिल्म की कहानी बनाई गई है. फिल्म का सब्जेक्ट बहुत ज़बरदस्त है, लेकिन फिल्म की कहानी और पटकथा, उद्देश्य की पूर्ति करने में असमर्थ हैं. फिल्म: वुल्फ भाषा: मलयालम ड्यूरेशन: 113 मिनिट्सओटीटी: ज़ी5 संजय (अर्जुन अशोकन) अपनी मंगेतर आशा (संयुक्ता मेनन) से मिलने उसके घर जाता है. आशा घर पर अकेली है, उसकी मां अपने रिश्तेदारों से मिलने गयी है. संजय का इस तरह सरप्राइज विजिट देना, आशा को पसंद नहीं आता. संजय के पहुंचने के कुछ देर बाद ही कोरोना की वजह से देश में लॉकडाउन की घोषणा हो जाती है और आशा के घर के बाहर लगी पुलिस, संजय को वापस जाने के लिए मना कर देती है. संजय, आशा के घर फंस जाता है. दोनों की बातचीत होने लगती है और आशा को समझ आता है कि संजय एक बहुत ही गुस्सैल, स्वार्थी और बदमिज़ाज शख्स है जिसके लिए अपने अलावा कोई महत्वपूर्ण नहीं है. संजय दूसरों की बेइज़्ज़ती करने से, झगड़ा करने से, ऊंची आवाज़ में बात करने से और संकीर्ण विचारधारा वाले पुरुषों की तरह व्यव्हार करने से बाज़ नहीं आता. आशा कोशिश करती है कि वो संजय को समझा सके और उसकी गलतियां उसे दिखा सके लेकिन संजय, अपनी आदत से मजबूर है और वो आशा के साथ भी बुरा व्यवहार ही करता है. आशा चाहती है कि संजय लौट जाए, और इसके लिए वो अपनी मां की मदद से अगले दिन एक एम्बुलेंस में उसके जाने का जुगाड़ भी कर देती है. लेकिन क्या सिर्फ लोक-लज्जा इकलौता ऐसा कारण था कि आशा, संजय को घर से निकालने की फ़िराक़ में थी या कोई राज़ था जिसे वो छुपा रही थी. फिल्म इसी बात का खुलासा करती है. फिल्म की कहानी, मलयालम साहित्य के जाने मने लेखक जीआर इन्दुगोपन की शॉर्ट स्टोरी “चेन्नाया” पर आधारित है. संजय का अपनी मंगेतर से मिलने के लिए जाना, संजय के दोस्तों का उसे फ़ोन पर छेड़ना और पुलिसवाले से उसका झगड़ा करना, एकदम असली ज़िन्दगी का हिस्सा लगता है. आशा का दरवाज़ खोल का सरप्राइज होने के बजाये नाराज़ होना, चिड़चिड़ाना भी बहुत असली लगता है. परत दर परत, संजय और आशा के किरदार खुलने लगते हैं. पुरुषों का जन्म स्त्रियों से काम करवाने के लिए हुआ है, पुरुष शक्तिशाली हैं, स्त्रियां कमज़ोर हैं, जबतक समझाया न जाए स्त्रियां ठीक से काम नहीं कर पातीं, अकेली स्त्री तो कुछ नहीं कर सकती, एक लड़की को उसकी जगह पता होना चाहिए, उसे अपने मंगेतर के लिए कॉफ़ी बनानी चाहिए और साथ देने के लिए उसे भी कॉफ़ी ही पीनी चाहिए चाय नहीं. ऐसी कई छोटी छोटी बातें संजय के व्यवहार से साफ़ दर्शाती हैं कि वो स्त्रियों का सम्मान नहीं करता और उन्हें अपने से दोयम दर्ज़े का समझता है. यहां तक कि वो अपनी मित्र से इसलिए शादी के बारे में नहीं सोचता क्योंकि वो शॉर्ट्स पहनती है. आशा के मन में संजय के इस कंट्रोलिंग नेचर को लेकर पहले गुस्सा और बाद में दया आती है. इस फिल्म में पुरुष प्रधान समाज के खिलाफ विद्रोह के अलावा भी एक बड़ी बात है. शादी होने तक या शादी होने के बाद भी कई वर्षों तक, पुरुषों को ये एहसास ही नहीं होता कि अब उनकी ज़िन्दगी में एक बड़ा परिवर्तन आया है और उन्हें अपने व्यवहार में उसके अनुसार परिवर्तन लाना ज़रूरी है. उनका लड़कपन ही ख़त्म नहीं होता.
फिल्म बड़ी रोचक है. पहले भाग में आशा जिस तरह से संजय की हरकतों से परेशान हो कर उसे टोक देती है और संजय उसे समझाता है कि वो शादी के बाद बदल जाएगा दूसरे भाग की कहानी संजय को सीख देने की कहानी है, उसके अंदर जिस तरह का संकुचित विचारधारा वाला आदमी छिपा हुआ है, उसे बाहर निकालने की प्रक्रिया दिखाई गयी है. बीच बीच में लॉकडाउन के रिफरेन्स भी दिए गए हैं. कहानी के आखिरी 20 मिनट बहुत बोझिल हैं क्योंकि फिल्म आपसी संवाद से हटकर प्रवचन में बदल जाती है. भेड़ के लिबास में भेड़िये की कहानी बन जाती है और पितृ-सत्तात्मक समाज के खिलाफ उठती आशा की आवाज़ कहीं छूट जाती है. फिल्म का अंत कमज़ोर है, क्योंकि मूल कहानी से भटका हुआ है. हालांकि, पूरी फिल्म देखी जा सकती है. लेखक, इन्दुगोपन हैं. डायलॉग भी बहुत तीखे हैं और आम ज़िन्दगी के ही लगते हैं. निर्देशन शाज़ी अज़ीज़ का है जिन्होंने एम80 मूसा नाम का करीब 360 एपिसोड वाला एक टीवी सीरियल निर्देशित किया था. वुल्फ में शाज़ी ने कई छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा है जो फिल्म को रोचक बनाये रखता है. अभिनय में अर्जुन और संयुक्ता, दोनों ने ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है हालांकि उनके किरदार किसी एक बात पर लम्बे समय तक कायम नहीं रहती. तीसरे किरदार “जो” की भूमिका में इरशाद काफी अजीब अभिनय करते हुए नज़र आये. उनका किरदार कहानी के लिए महत्वपूर्ण है और उसको डेवेलप करने के लिए थोड़ी और मेहनत करने की ज़रुरत थी. संयुक्ता की मां, घर के बाहर तैनात पुलिसवालों का किरदार भी कहानी से हटाया जा सकता था, थोड़ा और नयापन आ सकता था. फिल्म अपने आखिरी 20 मिनिट में रस्ते से भटकती नज़र आती है और दर्शकों को वहां धोखे की अनुभूति हो सकती है. स्त्री-पुरुष के भावनात्मक संबंधों, आपसी सम्मान, पुरुषों का दम्भी व्यव्हार, सत्तात्मक नजरिया… कहानी के लिए बहुत अच्छे विषय थे, निर्देशक और कहानीकार उसे सही जगह तक पहुंचाने में असमर्थ रहते हैं. इसका अर्थ ये नहीं है कि फिल्म देखी नहीं जानी चाहिए. वुल्फ देखिये…कम से कम… पुरुष- प्रधान समाज की कल्पना से घृणा करने के आपको कई कारण नज़र आएंगे.

Source link

Tags: Film Review, Wolf, फिल्म रिव्यू, वुल्फ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *